User:Satgur prasad
अर्धजाग्रत मन से बनती हैं ‘हाथों की रेखाएँ’
लगभग 3000 ई०पू० ‘द इमेराल्ड टेबलेट’ ले कहा था कि जैसा ऊपर, वैसा नीचे जैसा भीतर, वैसा बाहर हाथों की रेखाओं पर विश्वास करना, यह बहुत चलन में है। हाथों की रेखाओं को लेकर विद्वानों ने एक मानक तय कर दिया है कि यदि रेखाएँ ऐसी हैं तो ऐसा होगा या ऐसा है। लेकिन विद्वानों ने इस रहस्य को बताने में चालाकी की है कि रेखाएँ बनती कैसे हैं? रेखाओं का निर्माण कैसे हुआ? क्यों हुआ? और रेखाएं बनाता कौन है? बहुत से कोर्स भी चलाए जा रहे हैं। जैसे- 'हस्तरेखा विज्ञान से जाने अपना जीवन', 'हस्तरेखा बता सकती है भविष्य', 'हस्तरेखा ही है सच' इत्यादि। स्पष्ट बात यह है कि हाथों की लकीरों में कुछ लिखा नहीं होता है, यह सिर्फ़ पैसा कमाने का एक तरीका है, धंधा है और दूसरों को मूर्ख बनाने का एक तरीका है। आपने 'पेंडुलम' और 'एल रॉड' का नाम सुना होगा और 'पेंडुलम' और 'एल रॉड' का उपयोग करके जो चाहे वह जान सकते हैं जैसे- कोई खो गया हो तो वह किस स्थान पर है किस दिशा में है यह पता करना, कौन सी तीर्थ यात्राएँ सफल होगीं या असफल होगीं यह पता करना, आदि। जब भी जीवन में उथल-पुथल हो या असमंजस हो, तो 'पेंडुलम' और 'एल रॉड' का उपयोग करके पूर्ण समाधान प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं और 'पेंडुलम' और 'एल रॉड' ही ऐसे दो वैज्ञानिक वस्तु हैं जो आपको सच-सच बताती हैं। “इशारे पर मत लटक रे बन्दे, स्वयं के गुरु को जान
हाथों की लकीरों को लेकर, क्यों है तू अनजान
दूसरों के पंख क्या काम के, अपने पंख पहचान” अपने देखा होगा कि हाथों की रेखाएँ बनती बिगड़ती रहती है। दरअसल यह अर्धजाग्रत मन की प्रोग्रामिंग के कारण हो रहा है। तो फिर आपके मन में यह सवाल आ रहा होगा कि जब बच्चा जन्म लेता है, तो उसके हाथ में तो बनी बनाई रेखाएँ होती हैं, और बच्चा सोच भी नहीं पा रहा है, तो उसके हाथ में रेखाएँ कैसी? बच्चों के हाथ की जो रेखाएँ हैं, वह ‘मां के गर्भधारण’ के दौरान मां के ‘गर्भ संस्कार’ के कारण निर्मित होती है। जैसा गर्भ संस्कार होगा उसी की अनुकूल हाथ की रेखाएँ बनती हैं। और गर्भ संस्कार विज्ञान की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से बच्चों को जैसा चाहे वैसा बनाया जा सकता है। और गर्भ संस्कार के समय अर्धजाग्रत मन की अहम भूमिका होती है। इस मानव जन्म में जब आप अपने ‘दृढ़ संकल्प या इच्छा शक्ति (will power)’ के द्वारा नई इच्छाएँ, सपने, आकांक्षाएँ अपने जाग्रत या अर्धजाग्रत मन में गहराई से पैदा करते रहते हैं और उसको लगातार बल देते रहते हैं, तब हमारे दिमाग में अविकसित 'कोषाणुओं एवं स्नायुतंत्र'(Cells and the nervous system ) पर जोर पड़ने के कारण हमारे हाथों में उसी से संबंधित क्षेत्र (corresponding zone) में एक नई रेखा का निर्माण होने लगता है। नए विचारों के द्वारा यानी अर्धजाग्रत मन की प्रोग्रामिंग के द्वारा हम अपने हाथों की रेखाओं में जबरदस्त परिवर्तन ला सकते हैं और नकारात्मक प्रभावी रेखाओं, चिह्नों इत्यादि को कमज़ोर कर धीरे-धीरे गायब कर सकते हैं। नवीन सकारात्मक लाभ देने वाली रेखाओं को पैदा कर उसे निरंतर बल देकर इतना प्रबल बना सकते हैं कि पुरानी सारी रेखाओं के प्रभाव को कमज़ोर कर सकते हैं, धुँधली कर सकते हैं। हाथों में नई रेखाएँ या हाथों की रेखाएँ अर्धजाग्रत मन की प्रोग्रामिंग का खेल है। आज हमारा हाथ कल के बोए गए विचारों का प्रतिफल है और यह बात जीवन पर भी लागू होती है। उदाहरण स्वरूप देखे तो होशपूर्वक सही बीज (विचार) डालकर भविष्य में फुलवारी पैदा कर लें या बेहोशी में रहकर हस्त-व्यस्त झाड़ियों वाला जंगल। आपका हाथ ठीक आपके अर्धजाग्रत मन का फूल है, नक्शा है और प्रतिबिंब है। आपके हाथ आपके अर्धजाग्रत मन की सटीक जानकारी देते हैं। दरअसल आपके हाथ आपकी आत्मा के चारों तरफ छाए हुए संस्कारों की रूपरेखा है। आपका हाथ आपके संपूर्ण दिमाग का प्रतिनिधित्व करता है। इससे आपके मूल गुण, स्वभाव, प्रकृति की एकदम सही सूचना मिलती है। जन्म कुंडलियाँ आपको सही सूचना दें या न दें, परंतु आपके हाथ वह ही हैं जो आप हैं, आपका दिमाग है, आपके संस्कार है। इसलिए हस्त-रेखाएँ शत-प्रतिशत सच होती हैं। बस इसको सही पढ़ने वाला जानकार होना चाहिए। सही हस्तरेखा विशेषज्ञ आपके अर्धजाग्रत मन की सारी वास्तविकता को खोलकर रख सकता है। और वहीं बिना अर्धजाग्रत मन को जानने वाले हस्तरेखा विशेषज्ञ आपसे पैसे ले सकते हैं, आपको मूर्ख बना सकते हैं। तुमसे बड़ा शनि कोई नहीं! समान्यता देखें तो ग्रह और मानव एक ही ईश्वर की उत्पत्ति हैं। सबको अपने-अपने स्वभाव में अभिव्यक्त होकर यात्रा जारी रखनी है। सारे ग्रह अपनी धुरियों पर यात्रा कर रहे हैं, मानव अपनी धुरी पर। कोई ग्रह मानव को बर्बाद या आबाद करने के लिए नहीं घूम रहा है, न उसको इस उद्देश्य के लिए परमात्मा में निर्मित किया है। संसार की आज भी कई आदिवासी प्रजातियों में न महामारक रोग है, न अनावश्यक दु:ख है और न तनाव है। यह प्रजातियाँ सौ साल से अधिक जीती हैं तो क्या शनि मंगल इन पर ज़्यादा मेहरबान है? सबसे ज़्यादा शनि भारत में ही लगते हैं। यह शब्द केवल भारत में ही प्रचलित है, जो पूरे विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत हिस्सा है बाकी की 97.6 प्रतिशत विश्व में न शनि सुनने में आता है, न मंगल, न राहु, न केतु, न कालसर्प योग, न मांगलिक कन्या। निश्चित ही जो देश जितना ज़्यादा गरीबी, अशिक्षित, अंधविश्वास, पुरोहित, ज्योतिष, तांत्रिकों में उलझा रहेगा, वहाँ उतने ही महाशनि हमेशा जीवित रहेंगे और हाथ की तुच्छ रेखाओं पर निर्भर रहेंगे, अपने जीवन को हमेशा कोसते रहेंगे और परेशान होते रहेंगे। तुम ही अपने सबसे बड़े शनि हो। तुम्हारे शनि है तुम्हारी अज्ञानता, तुम्हारे अंधविश्वास, तुम्हारे भय, तुम्हारे तुच्छ नकारात्मक धारणाएँ, तुम्हारे मापदंड, तुम्हारे झूठे अहंकार, तुम्हारी लालसाएँ, असीमित इच्छाएँ, अपेक्षाएँ इत्यादि। शनि तो शायद साढ़े सात साल लगता है और थोड़ा ही बर्बाद करता होगा, परंतु तुम्हारी धारणाओं के शनि जीवन भर लगे रहते हैं और इस जन्म ही नहीं, अनेक जन्मों तक। ज्ञान द्वारा इन सारे शनियों से मुक्त होते ही सारे ग्रह ईश्वर-स्वरूप हो जाते हैं, प्रेम के सागर बन जाते हैं, मान सम्मान के योग्य बन जाते हैं।
अज्ञानता से बड़ा कोई शनि नहीं है, अज्ञानी व्यक्ति के लिए हजारों शनि, मंगल, राहु, केतु हैं। इसके विपरीत ज्ञानी (जागे हुए) व्यक्ति के लिए केवल सत्य, परमात्मा, आनंद, रुचि और प्रेम है। @सतगुर प्रसाद(माइंड ट्रेनर, लेखक)